सोमवार, अप्रैल 17, 2017

वो जिंदगी ही क्या जो छाँव छाँव

हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली;
कुछ यादें मेरे संग पांव पांव चली;
सफ़र जो धूप का किया तो तजुर्बा हुआ;
वो जिंदगी ही क्या जो छाँव छाँव चली↶↶↶↶

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें